मैं पुरुष हु विधाता की रचना हु, समाज की परिभाषा में पत्थर जैसा कठोर हु, क्यूंकि एक पुरुष हु मैं दुःख में रोता हु आनंद में मुस्कराता हु अपनी भवनों को व्यक्त करने से नहीं हु घबराता पर फिर भी एक पुरुष हु मैं करता हु निर्भर अपने निरयणो के लिए कतराता नहीं दुसरो के सहयोग के लिए पर डरता हु वीराने से पर फिर भी मैं एक पुरुष हु